शुक्रवार, 5 जनवरी 2018

कश्मीरनामा - इतिहास और समकाल



लेखक अशोक कुमार पाण्डेय की कश्मीर पर लिखी हुई बेहद महत्वपूर्ण किताब ‘कश्मीरनामा’ (इतिहास और समकाल) राजपाल एंड संस प्रकाशन से इसी पुस्तक मेले में आ रही है | इसका आमुख लिखा है सुप्रसिद्ध आलोचक और विचारक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने | आप पाठकों के लिए सिताब दियारा ब्लॉग पर वह आमुख प्रस्तुत है .....                             

                              आमुख ....
              
                   कश्मीरनामा (इतिहास और समकाल)

     
कहते हैं कि कश्मीर का सौंदर्य देख, जहाँगीर के मुँह से निकला था—“धरती पर स्वर्ग यदि कहीं है, तो यहीं है, यहीं है, यहीं है” ( अगर फिरदौस बर रु ए जमीं अस्त, हमीं अस्तो हमीं अस्तो हमीं अस्त.)
     
आज धरती के इस स्वर्ग में अविश्वासहिंसा और घृणा का नर्क फैला हुआ है।
     
अशोक पांडे की यह पुस्तक इस नर्क के फैलने की कथा विस्तार से कहती है। यह कथा नीलमतपुराणजैसे पौराणिक संदर्भों और राजतंरगिणीजैसे पारंपरिक इतिहास-ग्रंथों से आरंभ हो कर नवीनतम शोध और विवादों तक आती है। कथा का थोड़ा विस्तृत हो जाना लाजिमी था, लेकिन कश्मीर के समकाल की सही समझ के लिए वहाँ के इतिहास की जानकारी और समझ अनिवार्य है। कश्मीर के इतिहास, भूगोल और समकाल की कथा सुनना जरूरी है ताकि हम कश्मीर को सिर्फ समस्यानहीं बल्कि एक ऐसी जगह के रूप में पहचान पाएँ जहाँ हमारे जैसे ही नागरिक रहते हैंजिनका जीवन-मरण उस जगह के  विशिष्ट इतिहास और भूगोल से प्रभावित होता है।
       
कश्मीर-समस्याका एक कारण भूगोल है तो दूसरा इतिहासमुसलिम बहुल आबादी और भारत और पाकिस्तान दोनों से मिलती सीमाएँ। फैसला हर रियासत की तरह महाराजा को ही लेना था और उनकी मुख्य चिंता अपनी हुकूमत बनाए रखने की थी, जो कि व्यावहारिक रूप से संभव नहीं था। इसीलिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान दोनों से सौदेबाजी की कोशिश की, और इसी दुचित्तेपन के कारण समस्या”  के वर्तमान रूप की शुरुआत हुई।
     
आज, असल समस्या है अजनबियत और पराएपन का बोध। इस बोध को दूर किये बिना उस असंतोष का कोई समाधान संभव नहीं जो बीच-बीच में उग्र रूप लेता रहता है। इसी के साथ, यह बात भी उतनी ही सच है कि कश्मीर को विश्वविजयी इसलाम” ( पैन इसलामिज्म) के आख्यान में स्थापित करने की कोशिशें लगातार चलती रही हैं। अशोक याद दिलाते हैं कि शेख अब्दुल्ला के 1931-32 के लोकतांत्रिक और व्यावहारिक रूप से सेकुलर आंदोलन के जमाने से ही पैन इसलाम और कट्टरपंथ के तत्व आंदोलन को भटकाने की कोशिश कर रहे थे। यह  ब्रिटिश राज के इशारे पर ही हो रहा था। इस विचारधारा के प्रभाव में आने वालों को कैसी आजादीमिली, यह पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में देखा जा सकता है। कहने की जरूरत नहीं कि इस आंदोलन को ही नहीं, सारी राजनैतिक प्रक्रिया को हिन्दू-मुसलमान में बदलने के काम में हिन्दू सांप्रदायिकता पीछे नहीं थी। स्वाभाविक ही था, कि हिन्दू और मुसलिम दोनों रंगत की सांप्रदायिक राजनीति  कश्मीर में भी वही कर रही थी, और कर रही है, जो बाकी सारे देश में। यह पुस्तक ऐसे अनेक प्रसंग रेखांकित करती है, बहुत सारे मिथकों और छद्म नायकों की वास्तविकता को सप्रमाण, तर्कसंगत ढंग से उजागर करती है।
     
ऐसा नहीं है कि पराएपन  का बोध केवल कश्मीरी मानस में है। कश्मीरियों को बाकी भारत के लोग कितना अपना समझते हैंउनके बारे में  किस तरह सोचते हैंएक सिरे पर वे लोग हैं जिनके लिए ना मानवाधिकारों का कोई मतलब है ना कानूनी प्रक्रियाओं का, वे हर तरह के दमन का समर्थन राष्ट्रवाद के नाम पर करते हैं। जिनकी समझ खीर देंगेचीर देंगेवाली वाणी में झलकती है। ये लोग भूल जाते हैं कि असंवाद का समाधान संवाद से ही हो सकता है, आक्रामकता से नहीं। दूसरी तरफ वे हैं जो बिना सोचे-समझे आत्मनिर्णय़ के अधिकार’  का समर्थन करते हैं। इन्हें इससे कोई मतलब नहीं कि आत्मनिर्णय में आत्मकौन होगा? कैसे निर्धारित होगा? उसका अन्यकौन होगा? इन सवालों की उपेक्षा करने का नतीजा यही होना है कि घोर कट्टरपंथी, प्रतिगामी तत्व राजसत्ता और समाजतंत्र पर हावी हो जाएँ। औरतें सदा के लिए दोयम दर्जे पर ठेल दी जाएँ, मेहनतकश तबकों के अधिकारों की बात  से लेकर  सिनेमा आदि  तक को कुफ्र करार दे दिया जाए।
       
कश्मीरनामाकी खूबी यह है कि सवाल सांप्रदायिकता का हो, या कश्मीर की सामाजिक संरचना और उसके ऐतिहासिक विकास का, इतिहास के मूल्यांकन का हो, या भविष्य की कल्पना का—-सरलीकरणों के बजाय किताब तथ्यों, प्रमाणों और उनसे प्राप्त होने वाले निष्कर्षों पर भरोसा करती है। सामाजिक-सांस्कृतिक पहचानों के प्रति संवेदनशील रहते हुए भी, अशोक उनके निर्माण की ऐतिहासिक प्रक्रिया और सामाजिक गतिकी के आर्थिक-भौतिक पहलू को कहीं भी  ओझल नहीं होने देते। वे सांस्कृतिक  अस्मिता के सवालों को वास्तविक आर्थिक-सामाजिक ढांचे के संदर्भ में तथा अखिल भारतीय ही नहीं व्यापार के अतंर्राष्ट्रीय संदर्भ में  भी रखते हैं।
     
बीसवीं  सदी के कश्मीर का राजनैतिक इतिहास शेख अब्दुल्ला और उनकी विरासत से गुँथा हुआ है। अशोक शेख अब्दुल्ला के राजनैतिक विकास-क्रम को सहानुभूति के साथ देखते हैं, लेकिन आलोचनात्मक आकलन करते हुए। वे इस बात को विडंबना कहते हैं कि  शेख अब्दुल्ला मुस्लिम और हिन्दू, दोनों तरह के कट्टरपंथियों के लिए हमेशा नफ़रत का सबब रहे ।
     
इसमे विडंबना क्या है? यह तो बिल्कुल स्वाभाविक बात है। जो भी व्यक्ति सांप्रदायिक राजनीति के बरक्स समावेशी और सेकुलर राजनीति करेगा, वह ऐसे लोगों की नफरत ही तो कमाएगा। हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करने के लिए शेख़ अब्दुल्ला को मुस्लिम कट्टरपंथी बीसवीं सदी के चौथे-पाँचवें दशक में मुस्लिम विरोधी कह रहे थे तो नेहरू को हिन्दू विरोधी साबित करने के लिए हिन्दू कट्टरपंथ ने दुष्प्रचार की सारी हदें पार की हैं।
     
एक दुष्प्रचार यह भी है कि कश्मीर समस्या’  के लिए नेहरू ही जिम्मेवार हैं। अशोक ने कुछ जरूरी तथ्य याद दिलाए हैं, जो इस दुष्प्रचार का निवारण तो करते ही हैं, इस विडंबना का निराकरण भी करते हैं कि, “आज कश्मीर को लेकर नेहरू को बार-बार कटघरे में खड़ा किया जाता है और कहा जाता है कि अगर पटेल की चलती तो कश्मीर में कोई समस्या नहीं होती।
     
अशोक की उपलब्धि यह है कि वे कई स्रोतों में बिखरी पड़ी सूचनाओं और उनसे संबंधित वाद-विवाद को सामाजिक-ऐतिहासिक गतिकी के सुचिंतित तर्क और लोकतांत्रिक नागरिकता के नैरेटिव में रखने में सफल हुए हैं।
     
विवरण चाहे कश्मीर के इतिहास हो, चाहे समकाल कालेखक के चित्त में स्त्रियों की दशा ( अधिकांशत: दुर्दशा ही) के सवाल की सतत उपस्थिति आश्वस्तिदायक है।
     
कोई दो-ढाई साल पहले, अशोक ने कश्मीर पर किताब लिखने की इच्छा जताई थी। लिखे हुए के कुछ मसौदे मुझे पढ़वाए भी थे। मैं तभी से कश्मीरनामाका इंतजार करता रहा हूँ। यह आमुख लिखते समय मुझे जैसे संतोष और खुशी का अहसास हो रहा है, आप समझ ही सकते हैं। मेरी जानकारी में, यह हिन्दी में इस विषय पर इतने मुकम्मल ढंग से लिखी गयी पहली किताब है। आशा और विश्वास जताने की बात नहीं, मैं निश्चित रूप से जानता हूँ कि कश्मीरनामाका अध्येताओं और सामान्य पाठकों के बीच शानदार स्वागत होगा।


पुरुषोत्तम अग्रवाल

सुप्रसिद्ध आलोचक और विचारक